Lekhika Ranchi

Add To collaction

आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-2


प्रवेश--2


दिन निकलने में अभी देर थी। पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी। उसमें वैशाली के राजप्रासादों के स्वर्ण-कलशों की धूमिल स्वर्णकान्ति बड़ी प्रभावोत्पादक दीख पड़ रही थी। मार्ग में अभी अंधेरा था। राजप्रासाद के मुख्य तोरण पर अभी प्रकाश दिख रहा था। पार्श्व के रक्षागृहों में प्रहरी और प्रतिहार पड़े सो रहे थे। तोरण के बीचोंबीच एक दीर्घकाय मनुष्य भाले पर टेक दिए ऊंघ रहा था।

धीरे-धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा। राजकर्मचारी और नागरिक इधर-उधर आने-जाने लगे। किसी-किसी हर्म्य से मृदुल तंतुवाद्य की झंकार के साथ किसी आरोह अवरोह की कोमल तान सुनाई पड़ने लगी। प्रतिहारों का एक नया दल तोरण पर आ पहुंचा। उसके नायक ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकारकर कहा—'सावन्त महानामन्, सावधान हो जाओ और घर जाकर विश्राम करो।' महानामन् ने सजग होकर अपने दीर्घकाय शरीर का और भी विस्तार करके एक ज़ोर की अंगड़ाई ली और 'तुम्हारा कल्याण हो नायक', कहकर वह अपना भाला पृथ्वी पर टेकता हुआ तृतीय तोरण की ओर बढ़ गया।

सप्तभूमि राजप्रासाद के पश्चिम की ओर प्रासाद का उपवन था, जिसकी देख-रेख नायक महानामन् के ही सुपुर्द थी। यहीं वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ अड़तीस वर्ष से अकेला एकरस आंधी-पानी, सर्दी-गर्मी में रहकर गण की सेवा करता था।

अभी भी वह नींद में ऊंघता हुआ झूम-झूमकर चला जा रहा था। अभी प्रभात का प्रकाश धूमिल था। उसने आगे बढ़कर, आम्रकुंज में एक आम्रवृक्ष के नीचे, एक श्वेत वस्तु पड़ी रहने का भान किया। निकट जाकर देखा, एक नवजात शिशु स्वच्छ वस्त्र में लिपटा हुआ अपना अंगूठा चूस रहा है। आश्चर्यचकित होकर महानामन् ने शिशु को उठा लिया। देखा–कन्या है। उसने कन्या को उठाकर हृदय से लगाया और अपनी स्त्री को वह कन्या देकर कहा—देखो, आज इस प्रकार हमारे जीवन की एक पुरानी साध मिटी।

और वह उसी आम्र-कानन में उस एकाकी दम्पती की आंखों के आगे शशि-किरण की भांति बढ़ने लगी। उसका नाम रखा गया 'अम्बपाली', उसी आम्रवृक्ष की स्मृति में, जहां से उसे पाया गया था।

   4
1 Comments

fiza Tanvi

27-Dec-2021 03:32 AM

Badiya

Reply